सातवें चरण की ओर बढ़ रहा चुनाव, जातिगत भेदभाव और असमानता के बीच यथास्थिति बहाल रखने की लड़ाई – पी. चिदंबरम,…

Spread the love

बहुत सी ऐसी चीजें हैं, जिन्हें हम देखते तो हैं, पर उस पर ध्यान नहीं देते। कुछ चीजें हमें अचरज में डालती हैं, लेकिन हम उसे नजरअंदाज कर देते हैं। यही हम अधिकांश भारतीय लोगों की वास्तविकता है, जिसमें बड़ी संख्या में गरीब, पूर्वाग्रह और भेदभाव से लड़ने वाले वे लोग हैं, जो परस्पर विरोधी भावनाओं से प्रेरित हैं।
अर्थव्यवस्था समाज का दर्पण है यूएनडीपी के अनुसार, भारत के शहरी क्षेत्र में हर महीने 1286 और ग्रामीण क्षेत्र में 1089 रुपये प्रतिमाह कमाने वाला व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे है। एक आंकड़े के मुताबिक, भारत में गरीब लोगों की संख्या करीब 22.8 करोड़ है। हालांकि यह आकलन बहुत कम है। वर्ल्ड इक्वलिटी लैब के अनुसार, निचले 50 प्रतिशत लोगों (71 करोड़) के पास राष्ट्रीय संपत्ति का 3 प्रतिशत हिस्सा है और वे राष्ट्रीय आय का 13 प्रतिशत कमाते हैं। सरकार के सकल घरेलू खर्च सर्वेक्षण (एचसीएसई) के अनुसार, निचले 50 फीसदी लोगों में शहरी क्षेत्र के लोगों ने 3094 रुपये प्रतिमाह और ग्रामीण लोगों ने 2001 रुपये प्रतिमाह खर्च किए। इसके बाद निचले 20 प्रतिशत लोगों के घरेलू खर्च का अनुमान लगाने के लिए ज्यादा गणितीय कौशल की जरूरत नहीं है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स के 125 देशों की सूची में भारत 111वें नंबर पर है।

एचसीएसई के अनुसार, ओबीसी औसत स्तर पर हैं, जबकि एससी और एसटी सबसे ज्यादा गरीब हैं। इस बात में कोई आश्चर्य नहीं है कि आर्थिक स्थिति समाज में लोगों की हैसियत तय करती है। गरीब और उत्पीड़ित लोग बेहद कम मजदूरी पर कड़ी मेहनत करते हैं। करीब 15.4 करोड़ लोग मनरेगा के तहत पंजीकृत हैं और वे सक्रिय हैं। उन्हें सालभर में मात्र 50 दिनों का काम मिलता है। दूसरी तरफ ऊपर की 10 प्रतिशत आबादी राष्ट्रीय आय का 57.7 फीसदी कमाती है, जिसमें 9223 लोगों की साझेदारी का प्रतिशत 2.1 है और 92,234 लोगों की साझेदारी 4.3 प्रतिशत है। भारत में अमीरी और गरीबी का आकलन इस बात से भी किया जा सकता है कि जिन लेंबोर्गिनी कारों की कीमत प्रति कार 3.22 करोड़ रुपये से 8.89 करोड़ रुपये के बीच है, 2023 में ऐसी 103 कारें बेची गईं। इस बात को लेकर अमीर लोगों ने उस समय गर्व महसूस किया, जब महज 362 लोगों ने 757 करोड़ रुपये के इलेक्ट्रॉल बॉन्ड खरीदे और उस राशि को राजनीतिक दलों को दान में दे दिया। जब तक राजनीतिक दल यह स्वीकार नहीं करते कि भारतीय अर्थव्यवस्था जाति और असमानता पर आधारित है, तब तक हम गरीबी, भेदभाव और उत्पीड़न को खत्म नहीं कर सकते।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *