बात……… पागल ” विकास ” की

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राहुल गांधी की किसी सभा में, हंसी- मज़ाक ही सही, एक जुमला तो उछला था…. कि, ” विकास, पागल हो गया है ! ” 👉 आज उसी ” विकास ” की बात करते हैं हम ! मुझे लगता है कि ” विकास ” पथ पर अन्धाधुन्ध दौड़ते हम, शायद… जरूरत से ज्यादा आगे निकल आए हैं ! हम ” भारत ” को कभी अमेरिका / कभी चीन और कभी जापान जैसा बना दिखाने की बात करते हैं ! बड़ी दिक्कत, शायद यही है ! हम “भारत ” को ” भारत ” जैसा बनाने की बात बहुत कम करते हैं या प्राय: नहीं करते !” भारत ” दरअसल, भारत का मूल… ” देहात ” हुआ करते थे…. गांव थे, भारत का मूल. ! जहां, फल” डालियों पर ” पका करते थे… सब्जियां गन्दे पानी वाले नालों की मोहताज नहीं हुआ करती थी ! ….हम, उसी गांव को अब शहर बना देने के तमन्नाई हैं ! हमारी वह हसरत, परवान चढ़ रही है ! घातक रसायनों से पके फल… सहज उपलब्ध हैं हमें, लेकिन… शुद्ध देशी, टमाटर… देशी पपीता वगैरह… ढ़ूंढे नहीं मिल पाते !…शहर का बाजार, गांवों में घुसा है, सो लोग ” छाछ ” / मट्ठा भूल गये…उन्हें ” घी ” का लालच लग गया ! हुआ क्या… न छाछ रही, न घी हाथ में रहा ! माया मिली, न राम. ! नई पीढ़ियों ने ” नौसादर ” का नाम ही नहीं सुना ! भारत का मूल, ” देहात हैं / गांव है ” …जहां, कभी कबड्डी, खो- खो, पकड़ाबाटी, छिपनताली और सितोलिया जैसे खेल जिन्दा रहते थे !…कोई लागत नहीं आती थी उन खेलों पर… शरीर श्रम करता था, फिट रहता था !….”विकास ” की दौड़ में हम, जरूरत से ज्यादा दौड़ गए हैं शायद! …आज, गांव तो शहर बनने लगे, लेकिन वहां से वो सारे खेल….. गायब हैं ! खेल यदि है, तो… वही क्रिकेट… बस ! .भारत के मूल में थी ” भारतीय कलाएं ” …जो कुम्हार को, दर्जी को, मोची को, लुहार को… रोज़गार देती थी… अब उन कलाओं का दम ” घुटता- सा ” लगता है ! वो कलाएं. आत्मनिर्भरता खोने लगी हैं ! हम, आज केशलेस भारत की तस्वीरों को #हकीकत में बदलना चाहते हैं, लेकिन… हमारे देश का इतिहास साक्षी है कि #भारत सनातन काल में ” केशलेस ” ही था ! प्रभु राम ने #वनगमन के बाद जब #लंका पर फतह पाई, तब उनके पास कोई ” कैश ” कभी नहीं था ! वो मुद्रा लेकर वन को नहीं गये थे, और तब… बगैर मुद्रा के उन्होने बड़े युद्ध लडे / जीते भी ! भगवान बुद्ध ने ” केशलेस ‘ रहकर जो ” बोधिसत्व ” पा लिया था, वो हम आज दौलत का भंडार पाकर भी हासिल नहीं कर सकते ! पीछे मुड़कर देखिये सरकार : भारत तो सदा- सर्वदा से ‘ केशलेस ‘ ही था ! उसे Cash का कीड़ा हमने ही दिया और अब…. हम, उस कीड़े से राहत पा लेना चाहते हैं ! 👉.भारतीय शिक्षा पद्धति… सुना है, कभी अाश्रम आधारित व्यवस्था पर टिकी होती थी… 25-25 बरस के चार पृथक- पृथक आश्रम. ! हम ” विकास ” की दौड़ में स्कूल, कालेज तक आए… तब तक ” गुरू की गरिमा ” को स्वीकारते रहे… पूजते रहे ! इसी दौड़ में हमारे ” गुरू ” …शिक्षक से शिक्षाकर्मी, संविदा शिक्षक और फिर… पता नहीं कब ” अतिथि शिक्षक ” हो गये ! …सम्मान का हमारा, मूल भाव… ” विकास ” की अन्धी दौड़ में, हमसे कब पीछे छूट गया… पता ही नहीं चला ! #भारत का मूल था, यहां का पहनावा… “धोती- कमीज़ ” …जो आज बाबा रामदेव और आचार्य बालकृष्ण के बदन पर तो कायम दिखता है,लेकिन… भारत को दशा – दिशा दे सकने वाले… देेश के खेवनहार, उस पहनावे से… अमूमन परहेज पालते हैं ! गांव में चुनिन्दा किसान उस परिधान को अब जीवन देने की कोशिश कर रहे हैं , जो हर लिहाज से नाकाफी है ! …बहुत कुछ है, जो विकास की दौड़ में… हमसे, शायद पीछे छूट गया है !…मैं तो कहूंगा कि हमें ” विकास ” की खोज में… ” आगे नहीं…. वरन् पीछे को ” …चलना चाहिये,जहां… भारत… कम से कम आत्मनिर्भर था ! भारतीय की अपनी कला, अपनी संस्कृति… सम्मान पा जाती थी ! गांव – शहर में नवरात्री की खास पहचान हुआ करती थी… मंच सजते थे, वहां स्थानीय कलाकार ” रामलीला ” का सजीव मंचन किया करते थे ! सच पूछिये, तो… मुद्दत हो गई है…. हम न सिर्फ रामलीला भूले हैं, वरन… उसके किरदारों को भी बिसराए बैठे हैं ! .आज के परिवेश में, हमने यूं ही…. “एक अफवाह ” सुन ली कि- “विकास पागल हो गया है ! “….यदि वैसा कुछ नहीं लगता, तब भी मैं तो… यही कहूंगा कि – “मेरे भारत को मत बनाइये जापान…. उसे अमेरिका- चीन जैसा विकास भी मत दीजिये !…य़े ” भारत ” है… इसे, बस… भारत ही बने रहने दीजिये !
— जगदीश छाबड़ा मनासा

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