व्यक्ति, समाज और राष्ट्र निर्माण का ध्येय लेकर चले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने आज अपनी स्थापना के 100 वर्ष पूर्ण कर लिए हैं। संसार के सबसे विशाल और अनूठे संगठन की यह यात्रा त्याग, तपस्या, निःस्वार्थ सेवा और अनुशासन का प्रतीक है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की यह यात्राकई चुनौतियों और विषम परिस्थितियों में सेवा, समर्पण और संकल्प के ध्येय पथ पर आगे बढ़ी है। यह आद्य सरसंघचालक परमपूज्य डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी का संकल्प और प्रत्येक स्वयंसेवक का समर्पण है कि आज पूरे विश्व में संघ का ध्वज लहरा रहा है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना देश की असाधारण परिस्थितियों में हुई। भारत और भारत के स्वत्व के लिये जितना संकट अंग्रेजी राज से था उससे कहीं अधिक भारत विरोधी वे शक्तियां सक्रिय थीं जो भारत के पूर्ण रूपांतरण का कुचक्र रच रहीं थीं। इसे मालाबार, चटगांव, करांची और ढ़ाका की हिंसा से समझा जा सकता है। हिन्दुओं के सामूहिक नरसंहार, स्त्रियों के अपहरण पर भी देश में चुप्पी रही। एक ओर समाज, संस्कृति और राष्ट्र के दमन का कुचक्र चल रहा था दूसरी ओर भारतीय समाज अनेक आंतरिक विसंगतियों में उलझ गया था। जहां समाज विखंडन और अस्पृश्यता जैसा लोक व्यवहार प्रभावी था वहीं भारतीय समाज में आत्मगौरव कहीं खो रहा था। दासत्व की जंजीरों को ही अपनी नियति समझ लेने वाला विचार भी प्रभावी होने लगा था।
बालपन से ही राष्ट्र और सांस्कृतिक गौरव के प्रति समर्पित विशिष्ट प्रतिभा के धनी डॉक्टर जी के मन को यह सभी घटनाएं उद्वेलित कर रही थीं। डॉ. हेडगेवार जी स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी सेनानी थे। वे असहयोग आंदोलन में जेल यात्रा भी गये थे। भारत को दासत्व से मुक्ति संघर्ष में सहभागिता के साथ उन्होंने भारत में सांस्कृतिक और राष्ट्रभाव जागरण अभियान चलाने का भी संकल्प लिया। उन्होंने अनुभव किया कि जब तक प्रत्येक भारतीय के हृदय में स्वत्व का भाव जागृत नहीं होगा तब तक भारत पुनः अपने गौरव को प्राप्त नहीं कर सकता। डॉक्टर जी ने तत्कालीन सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति समर्पित विभूतियों से चर्चा की और संघ की स्थापना केलिये विजयादशमी की तिथि का चयन किया।
वर्ष 1925 में विजयादशमी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अस्तित्व में आया। इस तिथि के निर्धारण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना का ध्येय स्पष्ट है। विजयादशमी की तिथि और यह उत्सव स्वार्थरहित संघर्ष, सत्य की स्थापना, धर्म की रक्षा और मानवीय मूल्यों के पुनर्जागरण का संदेश देती है। यही संदेश राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पूरी शताब्दी यात्रा में निहित है।
संघ की इस शताब्दी यात्रा की दो बड़ी विशेषताएं रहीं। एक तो संघ की ध्येय निष्ठा, संसार में केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक मात्र ऐसा संगठन है जो अपने ध्येय पर अडिग है और निरंतर विस्तार पा रहा है। दूसरी विशेषता संघ पर होने वाले आक्रमणों की है। संघ पर वैचारिक, राजनैतिक हमलों के साथ स्वयंसेवकों पर प्राण घातक हमले हुए। लेकिन संघ की ध्येय यात्रा पर कोई बाधा नहीं डाल पाया। स्वतंत्रता के बाद तीन बार तो संघ पर प्रतिबंध लगे। गांधी जी की हत्या में झूठा फंसाकर स्वयं सेवकों को प्रताड़ित किया गया।आपातकाल में प्रतिबंध और प्रताड़ना भी संघ के स्वयंसेवकों ने झेली। वर्ष 1992 में अयोध्या घटना के बाद भी संघ पर प्रतिबंध लगा। कश्मीर, केरल, पश्चिम बंगाल आदि प्रांतों में आज भी संघ प्रचारकों पर हमले हो रहे हैं। लेकिन संघ कभी रुका नहीं, थका नहीं और न कोई स्वयंसेवक विचलित हुआ।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इस शताब्दी यात्रा में मध्यप्रदेश की गौरव नगरी उज्जैन का भी अपना योगदान है। मध्यप्रदेश में संघ कार्य का विस्तार दो दिशाओं से हुआ। एक नागपुर से महाकौशल की ओर तथा दूसरा नागपुर से मालवा की ओर। मालवा क्षेत्र की गौरव नगरी उज्जैन वह स्थान है जहां
व्यक्ति, समाज और राष्ट्र निर्माण का ध्येय लेकर चले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने आज अपनी स्थापना के 100 वर्ष पूर्ण कर लिए हैं। संसार के सबसे विशाल और अनूठे संगठन की यह यात्रा त्याग, तपस्या, निःस्वार्थ सेवा और अनुशासन का प्रतीक है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की यह यात्राकई चुनौतियों और विषम परिस्थितियों में सेवा, समर्पण और संकल्प के ध्येय पथ पर आगे बढ़ी है। यह आद्य सरसंघचालक परमपूज्य डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी का संकल्प और प्रत्येक स्वयंसेवक का समर्पण है कि आज पूरे विश्व में संघ का ध्वज लहरा रहा है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना देश की असाधारण परिस्थितियों में हुई। भारत और भारत के स्वत्व के लिये जितना संकट अंग्रेजी राज से था उससे कहीं अधिक भारत विरोधी वे शक्तियां सक्रिय थीं जो भारत के पूर्ण रूपांतरण का कुचक्र रच रहीं थीं। इसे मालाबार, चटगांव, करांची और ढ़ाका की हिंसा से समझा जा सकता है। हिन्दुओं के सामूहिक नरसंहार, स्त्रियों के अपहरण पर भी देश में चुप्पी रही। एक ओर समाज, संस्कृति और राष्ट्र के दमन का कुचक्र चल रहा था दूसरी ओर भारतीय समाज अनेक आंतरिक विसंगतियों में उलझ गया था। जहां समाज विखंडन और अस्पृश्यता जैसा लोक व्यवहार प्रभावी था वहीं भारतीय समाज में आत्मगौरव कहीं खो रहा था। दासत्व की जंजीरों को ही अपनी नियति समझ लेने वाला विचार भी प्रभावी होने लगा था।
बालपन से ही राष्ट्र और सांस्कृतिक गौरव के प्रति समर्पित विशिष्ट प्रतिभा के धनी डॉक्टर जी के मन को यह सभी घटनाएं उद्वेलित कर रही थीं। डॉ. हेडगेवार जी स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी सेनानी थे। वे असहयोग आंदोलन में जेल यात्रा भी गये थे। भारत को दासत्व से मुक्ति संघर्ष में सहभागिता के साथ उन्होंने भारत में सांस्कृतिक और राष्ट्रभाव जागरण अभियान चलाने का भी संकल्प लिया। उन्होंने अनुभव किया कि जब तक प्रत्येक भारतीय के हृदय में स्वत्व का भाव जागृत नहीं होगा तब तक भारत पुनः अपने गौरव को प्राप्त नहीं कर सकता। डॉक्टर जी ने तत्कालीन सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति समर्पित विभूतियों से चर्चा की और संघ की स्थापना केलिये विजयादशमी की तिथि का चयन किया।
वर्ष 1925 में विजयादशमी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अस्तित्व में आया। इस तिथि के निर्धारण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना का ध्येय स्पष्ट है। विजयादशमी की तिथि और यह उत्सव स्वार्थरहित संघर्ष, सत्य की स्थापना, धर्म की रक्षा और मानवीय मूल्यों के पुनर्जागरण का संदेश देती है। यही संदेश राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पूरी शताब्दी यात्रा में निहित है।

